सृष्टि के आरंभ में सूर्य की किरणें थी अत्यंत तीक्ष्ण, जिसे छांटकर सहने योग्य बनाया गया
अनमोल कुमार छंटे हुए तेज से विष्णु का सुदर्शन चक्र, अमोघ यमदंड, शंकर का त्रिशूल, काल का खड्ग, कार्तिकेय को शक्ति और दुर्गा के शूल बनाए गए आज के समय में ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) की गर्माहट भरी खबरों के बीच यह मानना कठिन हो सकता है कि सृष्टि के आरंभ में सूर्य की किरणें
छंटे हुए तेज से विष्णु का सुदर्शन चक्र, अमोघ यमदंड, शंकर का त्रिशूल, काल का खड्ग, कार्तिकेय को शक्ति और दुर्गा के शूल बनाए गए
आज के समय में ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) की गर्माहट भरी खबरों के बीच यह मानना कठिन हो सकता है कि सृष्टि के आरंभ में सूर्य की किरणें अत्यंत तीक्ष्ण थी, परंतु इस सत्य को विज्ञान और पुराण दोनों सत्यापित करते हैं। किस प्रकार सूर्य की रोशनी धरती वासियों के लिए कल्याणकारी और सहने योग्य बनी, इस रहस्य का उद्घाटन पद्म पुराण में हुआ है? पद्मपुराण के सृष्टि खंड में सूर्य उपासना पर वैशम्पायन मुनि और व्यास जी के बीच चर्चा हुई है। वैशम्पायन जी ने व्यास देव से पूछा-आकाश में प्रतिदिन उगने वाले सूरज कौन हैं? इसका क्या प्रभाव है और इन किरणों के स्वामी का प्रादुर्भाव कहां से हुआ है? व्यास जी उत्तर देते हैं-ब्रह्म के स्वरूप से प्रकट हुआ सूर्य ब्रह्म का ही उत्कृष्ट तेज है। यह साक्षात ब्रह्ममय है एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने वाला है। पौ फटने पर सूर्य के दर्शन करने से सारे पाप विलीन हो जाते हैं। सूर्य देव की उपासना करने से सभी प्राणी मोक्ष पा लेते हैं। संध्या काल में सूर्य की उपासना मात्र करने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जााता है। सूर्य की उपासना करने से मनुष्य सब रोगों से छूट जाता है। मनुष्य चाहे कितना ही पापी क्यों न हो, सूर्य उपासक इस लोक और परलोक में अंधे, दरिद्र, दुखी और शोकग्रस्त नहीं होते हैं।
सृष्टि के आरंभ में सूर्य की रोशनी इतनी अधिक तेज थी कि उनकी उपासना करना तो दूर देवताओं के लिए भी उनका दर्शन करना अति कठिन था। सूर्य का दर्शन प्रलयकारी आग के समान था। देवता गण सूर्य उपासना के लाभों से परिचित थे, फिर भी उनकी उपासना करने में असमर्थ थे। वे सभी परमपिता ब्रह्मा के पास पहुंचे और उनसे अपनी विडंबना बताते हुए बोले-सूर्य के प्रभाव से भूतल के मनुष्य आदि सभी प्राणी मृत्यु को प्राप्त हो गए, जलाशय सूख गए हैं। हम उनके तेज का सहन करने में समर्थ नहीं हैं। अब आप ही कुछ ऐसा उपाय करें कि सूर्य की रौशनी सहने योग्य बने?
देवताओं की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी नवग्रह के स्वामी सूर्य के पास पहुंचे और संपूर्ण जगत का हित करने के लिए उनकी स्तुति करने लगे। कहा-हे देव! आप सम्पूर्ण संसार के नेत्र हैं। आप से ही उत्पति और प्रलय होते हैं। आपने ही इस संसार को धारण किया हुआ है। आप परम पवित्र सबके साक्षी गुणों के धाम हैं। इस लोक और परलोक में सबसे श्रेष्ठ बंधु हैं और सब कुछ जानने वाले हैं। आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है जिससे सब लोकों का उपकारक हो। आदित्य ने कहा-हे पितामह, आप विश्व के स्वामी और स्रष्टा हैं। अपना मनोरथ बताइए। ब्रह्माजी कहते हैं-हे सूर्यदेव! आपकी किरणें अत्यंत प्रखर हैं, इस कारण लोगों के लिए दुसह बन गई है। इसमें मृदुता कैसे आएगी?
इस पर सूर्यदेव कहते हैं- मेरी कोटि-कोटि किरणें संसार का नाश करने वाली हैं। किसी युक्ति द्वारा इसे खरादकर कम किया जा सकता है। तब ब्रह्माजी ने सूर्य के कहने से विश्वकर्मा जी को बुलाया और वज्र की सान बनवाकर उसके ऊपर प्रलयकाल के समान तेजस्वी सूर्य को आरोपित करके उनके प्रचंड तेज को छांट दिए। उस छंटे हुए तेज से भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र, अमोघ यमदंड, शंकर का त्रिशूल, काल का खड्ग, कार्तिकेय को आनंद प्रदान करने वाली शक्ति और भगवती दुर्गा के शूल बनाए गए।
पुराण में सूर्य की किरणों को काटने के संबंध में एक दूसरी कथा भी आती है। कथा कुछ इस प्रकार है कि सूर्य की पहली पत्नी संज्ञा उनके तेज को सहन नहीं कर पाईं और अपनी प्रतिकृति छाया को अपने स्थान पर स्थापित कर के अपने पिता विश्वकर्मा के पास वापस आ गईं।
सूर्य को इस फेरबदल का भान नहीं था और उनका दांपत्य जीवन छाया के साथ यथावत चलता रहा। छाया से शनिदेव उत्पन्न हुए और जब इसकी खबर विश्वकर्मा को मिली तब उन्होंने संज्ञा से प्रश्न किया कि जब वह यहां पर है तब सूर्य के निवास स्थान पर कौन है? संज्ञा ने पिता को सच बताया कि वह अपनी प्रतिकृति सूर्य के पास छोड़ कर आ गई है क्योंकि वह सूर्य का तेज सहन नहीं कर सकती थी। पिता ने संज्ञा को दोबारा से सूर्य के पास लौटने का आदेश दिया। संज्ञा वापस आ गईं और उनका क्रोध छाया पर फूटा जिसे उन्होंने सूर्य की उपस्थिति में संकुचित कर दिया। पत्नियों के बीच हुए फेरबदल का सूर्य को फिर से आभास नहीं हुआ। जीवन यथावत चलता रहा, परंतु संज्ञा के मन में शनि के प्रति मनमुटाव बाकी था, जिस कारण शनि और सूर्य के संबंधों में भी कड़वाहट आ गई और संज्ञा को सूर्य से दोबारा अलग होना पड़ा। वह अपने पिता विश्वकर्मा के पास वापस नहीं जा सकती थीं इसीलिए अश्व रूप धारण करके जंगल में रहने लगीं। उन्हें दोबारा प्राप्त करने के लिए सूर्य अपने ससुर विश्वकर्मा के पास जाते हैं और उनसे आग्रह करते हैं कि वह उनका तेज कम कर दें जिससे वह संज्ञा के अनुकूल बन सकें।
कथा चाहे कोई भी हो यह तो निश्चित है कि सात घोड़ों से जुते रथ पर सवार सूर्य रोज हम सबके लिए नया दिन, नई उम्मीदें लेकर अवतरित होते हैं, और मकर संक्रांति के दिन सूर्य अपने रूठे हुए पुत्र शनि को मनाने के लिए उसकी राशि में प्रवेश करते हैं। संक्रांति के दिन सूर्य अपने पुत्र शनि को यह बताने के लिए आते हैं कि यमराज धर्मराज हैं, लेकिन न्यायधीश तो शनि ही हैं। बिना उनके न्याय के धर्म का पालन नहीं हो सकता है, इसलिए इस दिन तिल, गुड़ खाने की परंपरा है, जिसका आधार है कि तिल, गुड़ आदि काल से यज्ञ हवि हैं। हमारा जीवन यज्ञ के अतिरिक्त और क्या है, जहां हम नित्य प्रति कर्मों की हवि दे रहे हैं। दूसरा-गुड़ खिलाकर सूर्य अपने बेटे को मना रहे हैं, किसी को मनाना होता है तो कुछ मीठा खिलाया जाता है। इस दिन दान देने की भी परंपरा है, क्योंकि यह एक अत्यंत शुभ घड़ी है, जहां पर पिता और पुत्र दोबारा से मिल रहे हैं और किसी भी शुभ अवसर पर बलाएं लेने की परंपरा है।